कल्पना

कल्पना मुझसे रूठ गई
मैं खुद को भूल गया हूँ
स्वप्न सारे बिखर गए
अब नींद से जग गया हूँ
ढूंढ़ता रहा उस पल को
जो कब के बीत चुके हैं
स्याही ख़त्म हो गई क्या ?
की कलम खो गई राहों में
लेखनी मेरी सारी अधुरी
पड़ा मैं कबसे भावों में
एक के बाद दूसरे आते
कितने प्यारे राहों के मोड़
संवेदना नहीं किसी से कोई
राही चले अपनों को छोड़ 
                        (२४/५ /२००९ ,प. चंपारण  )        



                                                          मुन्ना  साह
                              शोध अध्येता ,दिल्ली विश्वविद्यालय ,दिल्ली -७  

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

आदिवासी की अवधारणा और जातीय स्वरूप

रेत

गुलाब महकता है