आदिवासी की अवधारणा और जातीय स्वरूप
आदिवासी
की चिंता जल, जंगल, जमीन, भाषा और संस्कृति की है जो आदिवासी
अस्मिता के लिए आवश्यक है। आदिवासी को सहज ही असभ्य और बर्बर समझ लिया जाता है।
उसकी सभ्यता और संस्कृति को ना तो समझने की कोशिश की जाती है और ना ही उसके साथ
सहृदयता के साथ व्यवहार किया जाता है। बाहरी स्वरूप और आवरण के आधार पर परिभाषा
गढ़ दी जाती है, जो यथार्थ से बिल्कुल दूर की बात होती
है। “आदिवासी देश के मूल निवासी माने जाने
वाले तमाम आदिम समुदायों का सामूहिक नाम है। इस संदर्भ में यह विचारणीय है कि
आदिवासी पद का ‘आदि’ उन समुदायों के आदिम युग तक के इतिहास का द्योतक है।”1 आर्यों के आने से पूर्व भारत के घने
जंगलों में, पहाड़-पर्वतों में, घाटियों-दर्रों में आदिवासी अपना जीवन
जी रहे थे। उस जंगल पर,
उस हिस्से पर
आदिवासी का ही अधिकार था, उसकी सत्ता थी। फल-फूल, लकड़ी,
शिकार के लिए
उसे किसी से स्वीकृति लेने की आवश्यकता नहीं थी। खैबर दर्रे से जब आर्य भारत आए तो
वे अपने साथ रथ, बर्छी, कुल्हाड़ी,
गाय, घोड़े, ढोरों की फौज लेकर आए और पहला हमला उन्होंने आदिवासियों पर किया।2
इस तरह गोरे आर्यों ने काले आदिवासियों को अपने अधीन कर लिया। चमड़ी का रंग वर्ण
का स्वीकृत अर्थ हो गया और यह चीज जिसे भारतीय इतिहास का आरंभ कहा गया उसकी
आधारशिला बन गई।3 आर्य अपने पास उपलब्ध घोड़ों और शस्त्रों के बल पर
आदिवासियों के जंगल व जमीन पर अतिक्रमण करने लगे तथा उन्हीं के जंगलों और जमीनों
से निकाल बाहर करने लगे। आर्य यज्ञ करते थे और यह ‘हिस्सा हमारा हुआ’ ऐसी घोषणा करते
थे। आदिवासियों के प्रतिकार करने पर उन्हें असुर, राक्षस कहकर कत्ल किया गया।4 आर्यों के आगमन के पश्चात्
ही सही अर्थों में आदिवासियों की दुर्दशा का प्रारंभ हुआ। सैकड़ों वर्ष बीत गए पर
आज भी अधिकांश आदिवासी जंगलों, वनों और
गिरिकुहरों में समूहों में रहकर जीवनयापन कर रहे हैं।
आज
आदिवासी शब्द के उच्चारण से ही अनेको बिंब सहज ही बनने लगते हैं। प्रत्येक सदी से
छला-सताया, नंगा किया और सोची-समझी साजिश के तहत
वन-जंगलों में जबरन भगाया जाता रहा मनुष्य। वह मनुष्य जो अपनी स्वतंत्र परंपरा
सहित, सहस्र वर्षों घने जंगलों में रहनेवाला
संदर्भहीन मनुष्य है। जो एक विशेष पर्यावरण में अपनी सामाजिक तथा सांस्कृतिक
मूल्यों को जान की कीमत पर संजोये, प्रकृतिनिष्ठ, प्रकृति-निर्भर, कमर पर बित्ते भर चिंदी लपेटे, पीठ पर आयुध लेकर, लक्ष्य की खोज में शिकारी बना, मारा-मारा भटक रहा है। कभी राजनीतिक
तथा सांस्कृतिक वैभव से इतराने वाला यह कर्तव्यशील मनुष्य, परंतु वर्तमान में लाचार, अन्यायग्रस्त
तथा पशुवत् जीवन यापन करनेवाला मनुष्य वेदना से लोकाचार है। सूर्यास्त के साथ-साथ
गिरिकुहरों में उसकी हलचल बंद हो जाती है। सूर्योदय के साथ-साथ भोजन की खोज में वन
की संकरी, कंटीली पगडंडियों पर उसके नंगे पैर
चलने लगते हैं। जंगल में भोजन के लिए घूम-घूमकर थके उसके पैर, चिलचिलाती धूप में तपी उसकी पीठ, यदि भोजन मिल भी जाए तो कंधे पर शिकार
का बोझ यही है आधुनिक भारत में आदिवासी का करुणापूर्ण दृश्य! दिनभर भटकने के बाद
आई थकान को दूर करने के लिए थोड़ी-सी रोशनी में मस्त महफिल लगाई जाती है। उस
संगीत-महफिल में आदिवासी स्त्री-पुरुष, बच्चे, युवक-युवतियां तथा बड़े-बूढ़े सामूहिक
रूप से नृत्य करते हैं,
गाते हैं और
अपने सांस्कृतिक मूल्यों को संजोये रखते हैं। ये मूल्य ही उनके सामूहिक जीवन की
विशेषताएं हैं। उनकी सांस्कृतिक समूह चेतना ही, उनके समूह-जीवन की आधारशिला है।5 इस विकासमान मानव के
प्रति लोगों में विभिन्न धारणाएं बनी हुई हैं- “अधनंगे रहने के कारण या लंगोटी पहने शिकार के लिए जंगल-जंगल भटकने से भी उन्हें ‘भूमिपुत्र’ या ‘वनपुत्र’ कहना समीचीन समझते हैं। आजकल ‘आदिपुत्र’
जैसे नामों का
प्रयोग भी उनके लिए किया जा रहा है। जंगल के ‘अनाभिषिक्त राजा’ के रूप में भी
उनका उल्लेख किया जाता है।“6 युगों से आदिवासी समाज को किसी पराए
सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक नियमों के तहत
बंधने का कोई भी प्रयास पसंद नहीं था। आदिवासी समाज को जो कुछ भी प्राप्त था, वह सब कुछ प्रकृति द्वारा प्रद्त था।
इसी प्राकृतिक विचारधारा से ओतप्रोत वह भूमि, खेत-खलिहान, जल, जंगल, नदी, पहाड़, जीवन जीने की स्वतंत्रता आदि को प्रकृति का दिया हुआ मानता रहा है और
कोई राजा, साम्राज्य अथवा किसी शासकीय सत्ता
को कभी भी इसका
मालिक नहीं माना। आज “आदिवासी लोग ऐतिहासिक रूप से विकसित और
जैविक रूप से स्वतः आगे बढ़ने वाली इकाइयां हैं, जो कुछ खास सांस्कृतिक विशेषताओं द्वारा लक्षित होती हैं और जो
मुख्यधारा के समाज और उसकी संस्थाओं द्वारा कई तरह से दबाई जाती हैं, और जो लंबे समय से अपनी विशिष्टताओं और
अस्तित्व के लिए बुनियादी सीमाई संसाधनों के संरक्षण व उनकी बढ़ोतरी के संघर्ष में
लगे रहे हैं। इस मायने में वे कारगरता और चरित्र, दोनों ही अर्थों में देशज लोंगों के समान हैं। इसलिए अगर हम आज देशज
और आदिवासी पदों का पर्याय के रूप में प्रयोग करें तो कोई खास मुश्किल नजर नहीं
आती। हां, दोनों पदों के इस्तेमाल का ऐतिहासिक
संदर्भ हमेशा याद रखना होगा। हमें याद रखना होगा कि ‘आदिवासी’
भारतीय भूमि पर
निवास कर रहे देश के मूल निवासियों या आदि निवासियों के वंशजों के रूप में मान्य
तमाम लोगों/समुदायों के लिए इस्तेमाल होने वाला एक व्यापक पद है।”7 आदिवासी का अर्थ समाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक समूह है, जिसकी स्वायत्तशासी व्यवस्था होती है। स्वतंत्र एवं
सौहार्दपूर्ण जीवन व्यतीत करने की चेतना प्रकृति प्रद्त शाद्वल कुंजों से प्राप्त
करता है तथा विभिन्न जीवों के साथ आत्मीयता और संसर्ग स्थापित करने वाला विकासमान
मानव है।
जातीय
स्वरूप
भारत
जैसे बड़े देश में अनेक आदिवासी जातियां निवास करती हैं। लेकिन सबकी पहचान एक जैसी
नहीं है। भौगोलिक भिन्नता के कारण आदिवासियों की सामाजिक, सांस्कृतिक तथा भाषाई विशिष्टताएं भी भिन्न-भिन्न हैं। भौगोलिक
दृष्टि से भारतीय आदिवासी जातियों को कई भागों में विभाजित किया गया है। भौगोलिक
वितरण को ध्यान में रखकर सर्वप्रथम बी. एस. गुहा (1951) ने आदिवासियों को तीन
जनजातिय क्षेत्रों में विभक्त किया है-
1. पश्चिम क्षेत्र : इस क्षेत्र के पश्चिम की ओर शिमला व लेह है पूर्व की ओर लुशाई पर्वत
और मिश्मी मार्ग है। इस क्षेत्र में जनजाति समुदाय पूर्वी कश्मीर, पूर्वी पंजाब, हिमाचल प्रदेश, उत्तरी उत्तर प्रदेश, असम तथा सिक्किम
में पाये जाते हैं। इस क्षेत्र की मुख्य जनजातियां रांभा, खासी, अका, डफला, मिरी, अपातानी,
नागा, कुकी, लुसाई,
लेपचा, गारो, गैलोंग,
जौनसारी, लरवरी, कर्णफूली,
थारु, व लाम्बा हैं।
2.मध्यवर्ती
क्षेत्र : इस क्षेत्र के अन्तर्गत बिहार, बंगाल, दक्षिणी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, दक्षिणी राजस्थान, उत्तरी महाराष्ट्र एवं उड़ीसा आते हैं। इस क्षेत्र की प्रमुख जंजातियाँ
- संथाल, उरांव, हो, खोंड, भूमिज,
लाधा, कोरा, गोंड, बैगा, भील, मीना, दामर आदि हैं।
3.दक्षिणी
क्षेत्र : इस क्षेत्र के मुख्य जनजातीय प्रदेश हैदराबाद, मैसूर,
आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु और कोचीन है। अनेक जनजातियां
अण्डमान-निकोबार द्वीप समूह में निवास करती हैं। इन क्षेत्रों की प्रमुख जनजातियां
चेंचू, इरुला, बनियन,
कादर, टोडा, कोटा तथा पुलयन आदि हैं।8
डी. एन. मजूमदार ने भौगोलिक आधार
पर जनजातियों का वर्गीकरण बी. एस. गुहा के ही वितरण आधार को स्वीकार करते हुए
आदिवासी जातियों को तीन भागों में वितरित किया है। श्यामाचरण दुबे (1960) ने
आदिवासी प्रधान क्षेत्रों को चार भागों में बांटा है-
1.उत्तर
तथा उत्तर-पूर्वी क्षेत्र : उत्तर में शिमला, लेह, लुशाई की पहाड़ीयां तथा पिरमी का
प्रदेश आता है। कश्मीर का पूर्वी भाग, पूर्वी पंजाब, उत्तर प्रदेश, असम, तथा सिक्किम भी इसी भाग में आते हैं।
इस प्रदेश की उल्लेखनीय जनजातीयां लेपचा, डफला, पिरमी, गारो, खासी, नागा, कुकी, अबोर, चकमा, गुरुंग आदि हैं। ये जनजातियां सीमांत प्रदेश में बसी होने के कारण
बहुत मत्वपूर्ण हैं। लेपचा जनजाति सिक्किम और सीमावर्ती भारतीय क्षेत्रों में पाई
जाती है। इस क्षेत्र की अनेक जनजातियां अपनी विशेषता बनाये हुए हैं। जैसे भोटिया
आदिवासी प्रसिद्ध व्यापारी होने के साथ-साथ हस्तकला में भी अत्यंत निपुण हैं। थारू
जनजाजि में स्त्रियों में जादू की कुशलता सर्वविदित है। नागा जनजाति ने भारतीय
राजनीति में ऐतिहासिक भूमिका निभाई है। ये अपनी वीरता तथा युद्ध कुशलता के लिए
प्रसिद्ध हैं। मणिपुर,
त्रिपुरा और
चटगांव के पर्वतीय प्रदेश से लेकर बर्मा की अराकान पहाड़ियों तक
कुकी, लुशाई, लाखेर और विन आदि जनजातियां रहती हैं। ये जनजातीय समूह तिब्बती तथा
चीनी भाषा बोलते हैं। कुछ प्राचीन जनजातियां सिक्किम और दार्जिलिंग के उत्तरी भागों में रहती हैं जिनमें लेपचा तथा
गलौंग विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इस क्षेत्र में निवास करने वाली गारो तथा खासी
जनजातियों में मातृ सत्तात्मक परिवारों का प्रचलन है। देश के इस भू-भाग में रहने वाले समूह
सीढ़ीनुमा खेतों पर कृषि कार्य करते हैं। कुछ समूह छोटे करघों पर बुनाई कला में भी
निपूर्ण होते हैं।
2.पश्चिमी
तथा उत्तर पश्चिमी क्षेत्र : इस क्षेत्र में पंजाब, राजस्थान,
महाराष्ट्र, तथा गुजरात की जनजातियां आती हैं।
राजस्थान की जनजातियों में भील, गरासिया, मीना, तथा बंजारे प्रमुख हैं तथा गुजरात में महादेव कोली, कटकरी, वर्ली तथा डबला प्रमुख जनजातियां हैं।
3.मध्यवर्ती
क्षेत्र : इस क्षेत्र में देश की सर्वाधिक जनजातीय संख्या निवास करती है। इसमें
बिहार के संथाल, मुंडा, उरांव,
बिरहोर, गोंड, उड़ीसा के बोंदो, खोंड, सोरा तथा ज्वांग, मध्यप्रदेश के गोंड, बैगा, कोल, कोरकू, कमार, भूमिया आदि आते हैं। मध्यप्रदेश के
गोंड सागर तथा बस्तर जिले में बहुतायत से पाये जाते हैं। छत्तीसगढ़ के कमार, रीवाँ के बैगा, मंडला के भूमिया और महादेव पहाड़ी के कोरकू भी इसी क्षेत्र में पाये
जाते हैं।
4.दक्षिणी
क्षेत्र: इस क्षेत्र में मैसूर, ट्रावनकोर, कोचीन, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक तथा केरल की जनजातियां
सम्मिलित की जाती हैं। इस प्रदेश में पाये जाने वाले जनजातीय समूहों में नीलगिरी
के टोडा, वायनाड के बनियन तथा कादर, हैदराबाद के चेंचू एवं कुरोवन हैं।
इसके अतिरिक्त चेट्टी,
इरुला, कुरिचमा, कुरुम्बा तथा कैनी जनजातियां भी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।9
अंडमान
तथा निकोबार द्वीप समूहों में अनेक जनजातीय समूह पाये जाते हैं। उनमें अंडमानी, ओंग, जारवा,
सेण्टेनेली अण्मान
द्वीप-समूह में पाए जाते हैं। ‘अण्मानी’ मुख्य रूप से स्टेट आइलैण्ड में, ‘ओंग’ ड्यूगोंग क्रीक तथा छोटे अण्मान की दक्षिणी खाड़ी के द्वीपों में, ‘जारवा’ दक्षिण एवं मध्य अण्डमान के पश्चिमी तटीय भाग में तथा ‘सेण्टेनेली’ आदिवासी उत्तरी सेंटेनेल द्वीप में पाए जाते हैं। ये सभी चारों जनजातीयां
निग्रिटा प्रजाति की हैं। निकोबार द्वीप समूह की दोनों जनजातियां अर्थात् शोमपेन
एवं निकोबारी ‘मंगोल’ प्रजाति की हैं। इनमें से ‘शोमपेन’ बड़े निकोबार द्वीप में और ‘निकोबारी’ निकोबार-द्वीप समूह के शेष द्वीपों में बिखरे हुए हैं। सभ्य दुनिया
के प्रतिमानों की दृष्टि से ‘निकोबारी’ जनजाति सर्वाधिक विकसित है जो स्थायी
बाशिंदों के रूप में रह रही है। जबकि शेष पांचों जनजातियां अभी भी आखेटावस्था में
समूहों में घुमक्कड़ी जीवन-शैली अपनाए हुए हैं।10 इस प्रकार संपूर्ण
भारत में फैली जनजातियों के विश्लेषण का एक आधार भौगोलिक भी माना जाता है। भौगोलिक
परिस्थितियां अपनी विशिष्ट जलवायु तथा प्राकृतिक स्रोतों के परिणामस्वरूप इन
क्षेत्रों में रहने वाले जनजातीय समुदायों की संस्कृति, रहन-सहन,
वेशभूषा तथा
आर्थिक गतिविधियों को प्रभावित करती हैं।
बहुत-सी
आदिवासी जातियां हैं जो खानाबदोशी जीवन व्यतीत कर रही हैं। ये भोजन की तलाश में एक
स्थान से दूसरे स्थान पर निरंतर घुमंतू का स्वरूप धारण की हुई नजर आती हैं। घुमंतू
जातियों में ‘बावड़िया’ अथवा ‘बौड़ी’, जो विशेष रूप से पश्चिम बंगाल, उड़ीसा तथा राजस्थान में है। ये लोग पंजाब, उत्तर प्रदेश तथा आंध्रप्रदेश में भी पाए जाते हैं। ‘अहेरिया’, जो राजस्थान तथा दिल्ली के आस-पास के क्षेत्र में निवास करते हैं। ये
चटाइयां बनाने का काम करते हैं। ‘बहेलिया’ आदिवासी प्रमुख रूप से उत्तर प्रदेश
में पाए जाते हैं। बिहार में इन्हें ‘मूला’ जनजाति के नाम से जाना जाता है। पक्षी
पकड़ना तथा उन्हें बेचना इनका प्रमुख व्यवसाय है। ‘सहरिया’
बुंदेलखंड तथा
उसके आस-पास के क्षेत्रों की जनजाति है। ‘लोढा’ और ‘तुरी’ पश्चिम बंगाल तथा बिहार में पाई जाने
वाली जनजातियां हैं।11 ‘रजवार’ तथा ‘मुसाहर’
बिहार में कृषि
कार्य में श्रमिक के रूप में कार्य करते हैं। ‘भार’ पश्चिम बंगाल, बिहार,
उत्तर प्रदेश
में रहते हैं तथा ये हिन्दूकृत हो चुके हैं। ‘बगदी’ और ‘बेदिया’
मध्य प्रदेश तथा
पश्चिम बंगाल की घुमंतू जनजाति है। ‘परधी’ आदिवासी के लोग महाराट्र के खानादेश क्षेत्र
में निवास करते हैं। मध्य प्रदेश में भी हैं और कई जातियों में विभक्त हैं- ‘टकिया परधी’, ‘लंगोली परधी’ तथा ‘शिकारी परधी’ आदि।112‘मांग गरुड़ी’ दक्षिण भारत के कर्नाटक में रहते हैं। ‘कैकड़ी’ दक्षिण भारत की घुमंतू जनजाति है।
कुछ
पेशेवर घुमंतू जनजातियां हैं, जो विभिन्न
क्षेत्रों में विशेष रूप से रहती हैं: ‘भगत’- कश्मीर, ‘बहुरूपिया’-
पंजाब,13 ‘गोंडहाली’-
महाराष्ट्र, ‘बंजारा’ तथा ‘ढोली’- राजस्थान,
‘तुरहिया’- उत्तर प्रदेश, ‘नट’ तथा ‘बाजीगर’-
पंजाब, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश व बिहार, ‘सांसी’- बंगाल, ‘मिरासी’-
पंजाब, ‘कंजर’- राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश, ‘थोड़ी’-
गुजरात, ‘बरगुडा’- मध्य भारत की जनजाति है।14अनेक घुमंतू जनजातियों का जीवन
बहुत ही निम्न स्तर का है। विमुक्त घुमंतू और अर्ध घुमंतू जनजातियों के मामले में
कई तरह की बाधाएं हैं। उनकी जनसंख्या कितनी है, इसके प्रमाणिक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। खानाबदोशी जिंदगी बिताने के
कारण साक्षरता के मामले में ये बेहद पिछड़े हुए हैं। इनकी सामाजिक व आर्थिक दशा पर
व्यापक अध्ययन की जरूरत है। विभिन्न दृष्टियों से आदिवासी जातियों का अध्ययन किया
गया है। डी. एन. मजूमदार, बी. एस. गुहा
तथा श्यामाचण दुबे के द्वारा किये गए भौगोलिक दृष्टि के अंतर्गत विभाजित जातियों
में ‘कंवर’ तथा ‘पाण्डो’ आदिवासी का नाम नहीं आता है। ये दोनों आदिवासी जातियां ऐतिहासिक
संदर्भ प्रकट करती हैं। ‘कंवर’ आदिवासी “महानदी के उत्तरी पहाड़ी क्षेत्रों में निवास करने वाली
यह जनजाति अपनी उत्पत्ति महाभारत के कौरव वंश से मानती है।”15 ‘कंवर’ जनजाति के लोग मुख्यतः छत्तीसगढ़ी
सोनघाटी और उसके पड़ोस (उत्तरी बिलासपुर जिले का पठारी भाग) तथा
सरगुजा जिले की सोनघाटी तथा उसके पड़ोस में बसे हैं, इसलिये इस क्षेत्र को कभी-कभी कंवरान भी कहा जाता है। कंवरान के अनेक
पहाड़ी राज्यों के जमींदार इस जनजाति के रहे हैं। बिलासपुर की अनेक जमींदारियां
इनके अधीन रही है जिनमें छुरी, भूतीडीह और
गुंडरदेही की जमींदारी उल्लेखनीय है।16 ‘पाण्डो’
आदिवासी की
जनसंख्या का अधिकतम भाग मध्यप्रदेश के सरगुजा जिले में रहता है।17ये
जनजाति महाभारत के पाण्डव राजाओं का वंशज होने का दावा करती है। पाण्डो जनजाति
पाण्डव राजाओं के जीवन के उस भाग को ही महत्व देती है जो उन्होंने चैदह वर्ष वनवास
में बिताया। ये पाण्डवों को जंगली एवं पहाड़ी जाति के रूप में अपना पूर्वज मानते
हैं। इनका कहना है कि ये लोग भी महाभारत के पाण्डवों की परम्पराओं का ही अनुसरण कर
जीविका-अर्जन करते हैं।18आदिवासी बहुल क्षेत्र झारखंड में आदिवासियों
को जनजाति और आदिम जानजाति दो खेमों में बांटा गया है। झारखंड में ‘असुर’, ‘बिरहोर’,
‘बिरिजिया’, ‘कोरबा’, ‘माल पहाड़िया’, ‘सौरिया पहाड़िया’ और ‘सावर’ को आदिम जनजातियों की श्रेणी में रखा गया है। आदिम जनजातियां पूरी
तरह कृषि और जंगल पर निर्भर रही हैं परंतु आज कारखानों व खनन के लिए जंगल काटे जा
रहे हैं। परिणामतः आदिम जनजातियां जंगल से बाहर हो रही हैं तथा मुख्यधारा के समाज
से तालमेल नहीं बिठा पा रही हैं।19आदिवासी आदिम जातियों की अस्मिता
खतरे में है। क्योंकि संथाल परगना कमिशनरी में छह जिले हैं। इस जिले से अबतक तीन
मुख्यमंत्री बन चुके हैं- शिबू सोरेन, बाबूलाल मरांडी
और हेमंत सोरे। इसके बावजूद इन जिलों में आदिम जनजातियां हाशिये पर हैं। सरकारी
विकास और योजनओं का लाभ मुख्यधारा से जुड़ चुकी कुछ जनजातियां मसलन ‘मुंडा’, ‘उरांव’
और ‘होरो’ वगैरह ही उठा पाती हैं।20 पूर्वोत्तर राज्यों की यदि बात
करें तो कई जनजातियां ऐसी हैं जिन्हें सरकार की ओर से अनुसूचित जनजातियों में नहीं
रखा गया है, इनमें ‘मोरान’,
‘मटक’, ‘ताई’, ‘अहोम’,
‘चाय जनजाति’ आदि आती हैं। त्रिपुरा की बड़ी
जनजातियों में त्रिपुरी,
जयंतिया, रियांग, नाअतिया,
कोलोई, मुरासिंह, चकमा, हलाम, गारो, कूकी, मिजो, मोघ, मुंडा,
ओरांग, संथाल, और उचोई प्रमुख हैं। अरुणाचल प्रदेश में मोंपा, खाम्ती, आदी, अका, आपातानी,
निशि, मिसमी, मिजी, नोक्टे जनजातियां निवास करती हैं।
नगालैंड की प्रमुख जनजातियां - अंगामी, आओ, चाखेसांग, चांग, डिमासा, कछारी,
खियामनीउंगम, कोन्याक, लौथा, फोम, पोचुरी,
रेंग्मा, सांग्तम, सूमी, कूकी और जिलियांग बड़ी जनजातियां हैं।
मणिपुर की लुसाई-कूकी,
खामती, आका, नगा, मिजो, मणिपुरी,
बोडो, कार्बी, मिसिंग,
खासी, अहोम, बोडो कछारी, मिरी और देउरी
प्रमुख जनजातियां हैं। गारो, खासी, जयंतिया मेघालय की प्रमुख जनजातियां
हैं। मिजोरम में मिजो,
लुसेई, गान्ते, पावी, लाखेर, मारा, रियांग और चकमा आदि जनजातियां निवास
करती हैं तथा सिक्किम में लेपचा, लिंबू।21पूर्वोत्तर
क्षेत्र के आदिवासियों की सबसे बड़ी समस्या उसकी भौगोलिक स्थिति तथा शिक्षा के नाम
पर बड़े शहरों में पलायन है। ये जनजातियां अपनी पारंपरिक मूल्यों को प्रवास के
दौरान भी संजोने की पुरजोर कोशिश करती हैं तथा अपनी भाषा को किसी कीमत पर खोने
नहीं देती। इन्हें सभ्य समाज उपेक्षित दृष्टि से देखता है, फिर भी ये अपनी अस्मिता के लिए छोटे से लेकर बड़े शहरों में संघर्षरत
डटे हुए हैं।
भारत
की सर्वाधिक जनसंख्या वाली जनजाति गोंड है। मध्यप्रदेश में ये स्थानीय छत्तीसगढ़ी
बोली और गोंडी भाषा बोलते हैं। बिहार तथा उत्तर प्रदेश में खड़ी बोली व भोजपुरी
बोलते हैं। जबकि दक्षिण में तेलगू बोलते हैं, जिन्हें कोया नाम से जाना जाता है। भवानीप्रसाद मिश्र अपनी कविता- ‘सतपुड़ा के जंगल’ में गोंड आदिवासियों के संदर्भ में
कहते हैं- “इन वनों के खूब भीतर/चार मुर्गे, चार तीतर/पाल कर निश्चिंत बैठे/विजन पन
के बीच पैठे/झोंपड़ी पर फूस डाले/गोंड तगड़े और काले/जब कि होली पास आती/सरसराती
घास गाती और महुए से लपकती/मत करती बास जाती/गूंज उठते ढोल इन के/गीत इन के गोल इन
के/सतपूड़ा के घने जंगल/उंघते अनमने जंगल।”22भवानी
प्रसाद ने इन पंक्तियों में गोंड जनजाति की सामाजिक, सांस्कृतिक दृश्य का चित्रण कर उनके
जातीय स्वरूप का जीवंत रूप प्रकट किया है। स्टीफन फ्यूच, वैरियर एल्विन, हट्टन तथा
ग्रिगसन आदि लेखकों ने गोंडों के बारे में पर्याप्त लिखा है, लेकिन इनके आर्थिक व सामाजिक स्थिति
में पहले कि तुलना में ह्रास ही हुआ है। इस व्यापक आदिवासी समुदाय की अस्मिता की
रक्षा उनकी प्राकृतिक संपदा तथा हरा-भरा वातावरण से पृथक करके नहीं बल्कि उन्हें सुपुर्द करके किया जा सकता है। यदि
भारतीय संदर्भ में आदिवासी जातियों को देखें तो पूर्व से पश्चिम तथा उत्तर से
दक्षिण सीमा तक आदिवासी समुदाय अनेक जातियों में बंटा हुआ है। लेकिन आदिवासी का
जातीय स्वरूप व्यापक होते हुए भी इनका केंद्रीय भाव प्राकृतिक उद्यमों से जुड़ा
है।
आदिवासी अस्मिता के परिप्रेक्ष्य में आदिवासी की
अवधारणा पर हमें कायदे से आलोचनात्मक ढंग से विचार करना चाहिए। एक विकासमान मानव
को जंगली, वनवासी, असभ्य,
बर्बर, गिरिजन, लंगोटिया आदि नामों से संबोधित कर उन्हें समझ लेना कितना सार्थक है
इस बात की भी पुष्टि होनी चाहिए। इल्विन महोदय ने आदिवासी को परिभाषित करते हुए
लिखा है कि “आदिवासी वह है जो सबसे शुद्ध हो। वह
ऐसा ग्रुप है जो मैदानी इलाकों में रहने वालों के संपर्क में हो और आदिवासी
जीवनशैली में रहता हो।”23 विभिन्न विद्वानों ने आदिवासी के
संदर्भ में अलग-अलग मत प्रकट किया है। जिससे स्पष्ट होता है कि आदिवासी भारतवर्ष
के मूल निवासी हैं, इसलिए किसी अन्य शब्दों के बजाय इनके
लिए ‘आदिवासी’ उपयुक्त शब्द है। हर आदिवासी समूदाय की अपनी भाषा, संस्कृति तथा स्वतंत्र सुरक्षात्मक
संगठन होता है। बहुतायत संख्या में आदिवासी जातियां हैं लेकिन अधिकांशतः आधुनिक
विकास, शिक्षा, संस्थान,
नौकरी और सरकारी
लाभ से वंचित हैं। कुछ जातियों को आदिवासी की सूची में भी नहीं रखा गया है तथा
कुछ जातियाँ आदिवासी होने का स्वांग भी कर रही हैं। कुछ आदिवासी जातियां हिंदू समाज के
संपर्क में आने के कारण हिंदू धर्म, संस्कृति को
अपना चूकि हैं। गैर आदिवासी समाज का शोषणात्मक प्रभाव आदिवासियों की निजता और
विशिष्टता को तेजी से खत्म कर रहा है। अतः आदिवासी अस्मिता और उसके विकास के लिए
आवश्यक है कि वैचारिक शिक्षा की रौशनी प्रत्येक आदिवासी समुदाय तक पहुंचे।
संदर्भ
1.आदिवासी
साहित्य विमर्श, संपादक: गंगा सहाय मीणा, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीव्यूटर्स
(प्रा.) लिमिटेड, संस्करण: 2014, पृ.19
2.आदिवासी
कौन, संपादक: रमणिका गुप्ता, राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, संस्करण: 2013, पृ. 15
3.आर्य
संरचना का पुनर्गठन,
रोमिला थापर, अनुवादक: आदित्य नारायण सिंह, हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, संस्करण: 2011, पृ.88
4.आदिवासी
कौन, संपादक: रमणिका गुप्ता, पृ.15
5.वही.
पृ.26
6.वही.
पृ.27
7.आदिवासी
साहित्य विमर्श, संपादक: गंगा सहाय मीणा, पृ.25
8.भारत
की जनजातीय संस्कृति,
विजय शंकर
उपाध्याय/विजय प्रकाश शर्मा/गया पाडेय, प्रकाशक: मध्यप्रदेश
हिंदी ग्रंथ अकादमी,
संस्करण: 2009, पृ.5-6
9.भारतीय
जनजातियां: संरचना एवं विकास, डॉ. हरिश्चंद्र
उप्रेती, राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी, जयपुर, संस्करण: 2007, पृ.13
10.आदिवासी
अस्मिता के पड़ताल करते साक्षात्कार, संपादक: रमणिका
गुप्ता, स्वराज प्रकाशन, संस्करण: 2012, पृ.16
11.भारतीय
जनजातियां: संरचना एवं विकास, डॉ. हरिश्चंद्र
उप्रेती, पृ.80
12.वही.
पृ.81
13.वही.
पृ.82
14.वही.
पृ.83
15.कंवर
जनजाति संस्कृति और संगठन, डॉ. मुकुल रंजन
गोयल, मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी, संस्करण: 2004, पृ.2
16.वही.
पृ.4
17.पाण्डो
जनजाति, डॉ. आर. के. सिन्हा, मध्यप्रदेश हिंदी ग्रथ अकादमी, भोपाल, संस्करण: 1983 पृ.3
18.वही.
पृ.10
19.योजना, प्रधान संपादक: राजेश कुमार झा, सं. कार्यालय, 538, योजना भवन, संसद मार्ग, नई दिल्ली-110001, वर्ष 58, अंक 1,
जनवरी 2014, पृ.49
20.वही.
पृ.50
21.वही.
पृ.52
22.दूसरा
सप्तक, संकलनकर्ता एवं संपादक: अज्ञेय, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, संस्करण: 1970, पृ.8
23.नया
जमाना, ‘आदिवासी अवधारणा की तलाश में, जगदीश्वर चतुर्वेदी, पृ.2
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