(लघु कथा) दिल्ली
के बंदर
उन दिनों जब दिल्ली
में खूब गरमियाँ पड़ने लगी थी, तो लोग एसी, कूलरों
से घर सजाने लगे थे ! कुत्ते ,
बिल्लियों के लिए कयामत-सी आ गई थी । सब अपनी क्षमता के अनुसार गर्मी से बचने के
उपाय कर रहे थे । लेकिन वे ‘दिल्ली के तीन बंदर’ लंबी-लंबी छलांग लगाते , प्रतिस्पर्धा करते, एक डाल से दूसरी डाल तो कभी किसी के छत पर तो कभी किसी और के छत पर । ऐसे
ही गर्मी से राहत की खोज में तीनों कश्मीर जा पहुंचे । वहाँ एक टोपी किसी फौजी का
गिरा हुआ उन्हें मिल गया। एक पहनता तो दूसरा उसे झपट लेता । दूसरा बहुत ही
जद्दोजहद के बाद उल्टी-सीधी पहन भी लेता तो तीसरा उसे झपट लेता । ऐसे ही तीनों बड़े
मौज में थे । पर उनके भाग्य में शायद जिंदगी के कुछ ही दिन शेष रह गए थे । भारत, पाकिस्तान का युद्ध हो रहा था। वे भी मातृभूमि का कर्ज चुकाने के लिए
भारतीय फौज में सम्मिलित हुए और सांकेतिक लड़ाई लड़ने लगे । तीन-तीन इंच का
पाकिस्तानी कारतूश बारी-बारी से तीनों के शरीर को पार्थिव बना दिया । तीनों ने
सौभाग्य से भारत में जन्म लिया, एक निम्नवर्गीय परिवार में, एक ने मध्यवर्गीय परिवार में और तीसरे ने उच्चवर्गीय परिवार में । आज
तीनों एक दूसरे के विरोधी हैं, कोई किसी को पसंद नहीं करता ।
पूर्व जन्म में मित्रता बहुत गहरी थी । इस जन्म में ब्यवशाय एक ही है । तीनों टोपी
की लड़ाई लड़ते हैं, एक ने नारंगी, दूसरे
ने सफ़ेद और तीसरे ने हरा टोपी पहन रखी है। ये तीनों लोगों को अलग-अलग टोपियाँ
पहनाते हैं और जाति, धर्म, संप्रदाय, भाषा, संस्कृति और देशभक्ति के साथ-साथ राजनीति का भी
पाठ पढ़ाते हैं । ये ‘दिल्ली के बंदर’
हैं पिछले जन्म की ख्वाहिश इनकी अधूरी रह गई थी !
मुन्ना साह , शोधार्थी (हिन्दी विभाग)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल न. 8882511167
ई-मेल : munnasahdu@gmail.com
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